Philippians - फिलिप्पियों 4 | View All

1. इसलिये हे मेरे प्रिय भाइयों, जिन में मेरा जी लगा रहता है जो मेरे आनन्द और मुकुट हो, हे प्रिय भाइयो, प्रभु में इसी प्रकार स्थिर रहो।।

1. So that, my brethren, beloved and longed for, my joy and crown, thus stand fast in [the] Lord, beloved.

2. मैं यूआदिया को भी समझाता हूं, और सुन्तुखे को भी, कि वे प्रभु में एक मन रहें।

2. I exhort Euodia, and exhort Syntyche, to be of the same mind in [the] Lord;

3. और हे सच्चे सहकर्मी मैं तुझ से भी बिनती करता हूं, कि तू उन स्त्रियों की सहयता कर, क्योंकि उन्हों ने मेरे साथ सुसमाचार फैलाने में, क्लेमेंस और मेरे उन और सहकर्मियों समेत परिश्रम किया, जिन के नाम जीवन की पुस्तक में लिखे हुए हैं।
निर्गमन 32:33, भजन संहिता 69:28, दानिय्येल 12:1

3. yea, I ask thee also, true yokefellow, assist them, who have contended along with me in the glad tidings, with Clement also, and my other fellow-labourers, whose names [are] in [the] book of life.

4. प्रभु में सदा आनन्दित रहो; मैं फिर कहता हूं, आनन्दित रहो।

4. Rejoice in [the] Lord always: again I will say, Rejoice.

5. तुम्हारी कोमलता सब मनुष्यों पर प्रगट हो: प्रभु निकट है।

5. Let your gentleness be known of all men. The Lord [is] near.

6. किसी भी बात की चिन्ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं।

6. Be careful about nothing; but in everything, by prayer and supplication with thanksgiving, let your requests be made known to God;

7. तब परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।।
यशायाह 26:3

7. and the peace of God, which surpasses every understanding, shall guard your hearts and your thoughts by Christ Jesus.

8. निदान, हे भाइयों, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरनीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्रा हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सदगुण और प्रशंसा की बातें हैं, उन्हीं पर ध्यान लगया करो।

8. For the rest, brethren, whatsoever things [are] true, whatsoever things [are] noble, whatsoever things [are] just, whatsoever things [are] pure, whatsoever things [are] amiable, whatsoever things [are] of good report; if [there be] any virtue and if any praise, think on these things.

9. जो बातें तुम ने मुझ से सीखीं, और ग्रहण की, और सुनी, और मुझ में देखीं, उन्हीं का पालन किया करो, तब परमेश्वर जो शान्ति का सोता है तुम्हारे साथ रहेगा।।

9. What ye have both learned, and received, and heard, and seen in me, these things do; and the God of peace shall be with you.

10. मैं प्रभु में बहुत आनन्दित हूं कि अब इतने दिनों के बाद तुम्हारा विचार मेरे विषय में फिर जागृत हुआ है; निश्चय तुम्हें आरम्भ में भी इस का विचार था, पर तुम्हें अवसर न मिला।

10. But I rejoiced in [the] Lord greatly, that now however at length ye have revived your thinking of me, though surely ye did also think [of me], but lacked opportunity.

11. यह नहीं कि मैं अपनी घटी के कारण यह कहता हूं; क्योंकि मैं ने यह सीखा है कि जिस दशा में हूं, उसी में सन्तोष करूं।

11. Not that I speak as regards privation, for as to me *I* have learnt in those circumstances in which I am, to be satisfied in myself.

12. मैं दीन होना भी जानता हूं और बढ़ना भी जानता हूं: हर एक बात और सब दशाओं में तृप्त होना, भूखा रहना, और बढ़ना- घटना सीखा है।

12. I know both how to be abased and I know how to abound. In everything and in all things I am initiated both to be full and to be hungry, both to abound and to suffer privation.

13. जो मुझे सामर्थ देता है उस में मैं सब कुछ कर सकता हूं।

13. I have strength for all things in him that gives me power.

14. तौभी तुम ने भला किया, कि मेरे क्लेश में मेरे सहभागी हुए।

14. But ye have done well in taking part in my affliction.

15. और हे फिलिप्पियो, तुम आप भी जानते हो, कि सुसमाचार प्रचार के आरम्भ में जब मैं ने मकिदुनिया से कूच किया तब तुम्हें छोड़ और किसी मण्डली ने लेने देने के विषय में मेरी सहयता नहीं की।

15. And know also *ye*, O Philippians, that in [the] beginning of the gospel, when I came out of Macedonia, no assembly communicated [anything] to me in [the] way of giving and receiving save *ye* alone;

16. इसी प्रकार जब मैं थिस्सलुनीके में था; तब भी तुम ने मेरी घटी पूरी करने के लिये एक बार क्या बरन दो बार कुछ भेजा था।

16. for also in Thessalonica once and even twice ye sent to me for my need.

17. यह नहीं कि मैं दान चाहता हूं परन्तु मैं ऐसा फल चाहता हूं, जो तुम्हारे लाभ के लिये बढ़ता जाए।

17. Not that I seek gift, but I seek fruit abounding to your account.

18. मेरे पास सब कुछ है, बरन बहुतायत से भी है: जो वस्तुएं तुम ने इपफ्रुदीतुस के हाथ से भेजी थीं उन्हें पाकर मैं तृप्त हो गया हूं, वह तो सुगन्ध और ग्रहण करने के योग्य बलिदान है, जो परमेश्वर को भाता है।
उत्पत्ति 8:21, निर्गमन 29:18, यहेजकेल 20:41

18. But I have all things in full supply and abound; I am full, having received of Epaphroditus the things [sent] from you, an odour of sweet savour, an acceptable sacrifice, agreeable to God.

19. और मेरा परमशॆवर भी अपने उस धन के अनुसार जो महिमा सहित मसीह यीशु में है तुम्हारी हर एक घटी को पूरी करेगा।

19. But my God shall abundantly supply all your need according to his riches in glory in Christ Jesus.

20. हमारे परमेश्वर और पिता की महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन।।

20. But to our God and Father [be] glory to the ages of ages. Amen.

21. हर एक पवित्रा जन को जो यीशु मसीह में हैं नमस्कार कहो। जो भाई मेरे साथ हैं तुम्हें नमस्कार कहते हैं।

21. Salute every saint in Christ Jesus. The brethren who [are] with me salute you.

22. सब पवित्रा लोग, विशेष करके जो कैसर के घराने के हैं तुम को नमस्कार कहते हैं।।

22. All the saints salute you, and specially those of the household of Caesar.

23. हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह तुम्हारी आत्मा के साथ रहे।।

23. The grace of the Lord Jesus Christ [be] with your spirit. Amen.



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